लियाकत शाह
कोरोना ऐक खतरनाक वायरस के रूप में जाना जाता है। जो सारी दुनिया मे हवा कि तरह से फैल रहा है। हर सरकार संभाव प्रयास कर रही है के जलद से जलद इस खतरनाक वायरस को काबू मे किया जाये। लेकीन रोज हजारो कि संख्या मे नये मामले सामने आ रहे है। वायरस की चपेट में आने वाले नए लोगों की संख्या अधिक तेज़ी से बढ़ती जा रही है। वायरस से बचने के लिये भारत मे सरकार कई बार लॉक डाऊन बडा चुकी है और जिसका असर रोजमारह के कामाने वाले गरीब मजदूरो को हो रहा है जो घर जाने कि आस मे कई हजार किलोमीटर का सफर बच्चो और परिवार के साथ पदैल ही तय कर रहे है। मजदूर पिता ने बच्चों को लेकर तय किया १६० किमी का सफर बांस, बर्तन-रस्सी के सहारे २ बच्चों को कंधे पर लटकाया, फिर चल दी कोरोना संकट के बीच लॉकडाउन की वजह से हजारों-लाखों प्रवासी मजदूर हताश-परेशान हैं। रोजी-रोटी चले जाने और जिंदगी बचाने की जद्दोजहद के बीच मजदूर बिना किसी चीज की परवाह किए बगैर पैदल ही अपने घरों की ओर लौट रहे हैं। इस बीच ओडिशा के मयूरभांज जिले से एक हैरान करने वाली तस्वीर सामने आई है। दिहाड़ी मजदूरी करने वाले रूपया टुडू अपने परिवार के साथ अपने घर मयूरभंज जिले से १६० किलोमीटर दूर जाजपुर जिले में एक ईंट भट्ठे में काम करते थे। जब कोविड-१९ लॉकडाउन के बाद उन्हें घर वापस लौटना पड़ा, तो टुडू के कंधे पर न सिर्फ परिवार को खिलाने का बोझ था, बल्कि अपने दोनों बच्चों कंधे पर टांग कर ले जाना पड़ा। कुछ महीने पहले, मयूरभंज जिले के मोराडा ब्लॉक के बलादिया गांव में रहने वाले आदिवासी टुडू ईंट भट्ठे पर काम करने के लिए जाजपुर जिले के पनीकोइली गए थे। लॉकडाउन के बाद भट्टे के मालिक ने काम बंद कर दिया और उन्हें उनका पैसा देने से मना कर दिया। जब उन्हें कोई रास्ता नहीं दिखा तो टुडू अपने परिवार संग पैदल ही घर के लिए निकल पड़े। मगर उनके साथ समस्या थी कि अपने दो बेटों को कैसे पैदल ले चलेंगे, जिनमें से एक की उम्र चार साल और दूसरे की ढाई साल है। इसके बाद उन्होंने दो बड़े बर्तनों बर्तनों को बांस के डंडे से जरिए रस्सी से बांधा और इसमें अपने बेटों को रख दिया। फिर टुडू ने उन्हें कंधे पर लटकाया और अगले १२० किलोमीटर की यात्रा तय की और शनिवार को अपने घर पहुंचे। टुडू ने कहा, ‘क्योंकि मेरे पास पर्याप्त पैसा नहीं था, इसलिए मैंने पैदल ही अपने गांव जाने का फैसला लिया। हमें गांव पहुंचने के लिए सात दिनों तक पैदल चलना पड़ा। कई बार बच्चों को कंधे पर लटकाकर इस तरह यात्रा करना दुखद होता था लेकिन मेरे पास कोई और चारा नहीं था। मजदूर टुडू और उनके परिवार को गांव में क्वारंटीन सेंटर में रखा गया है मगर वहां उनके लिए खाने की व्यवस्था नहीं थी। ओडिशा सरकार के क्वारंटीन प्रोटोकॉल मुताबिक, उन्हें क्वारंटाइन सेंटर में २१ दिन और अगले सात दिन घर में बिताने होंगे। जब क्वारंटाइन सेंटर में भोजन की व्यवस्था न होने की बात सामने आई तो शनिवार को मयूरभंज जिले के बीजद अध्यक्ष देबाशीष मोहंती ने टुडू के परिवार और वहां रहने वाले अन्य श्रमिकों के लिए भोजन की व्यवस्था की।गौरतलब है कि जब से लॉकडाउन हुआ है हजारों-लाखों मजदूर देश के अलग-अलग हिस्सों में फंसे हुए हैं और अपने घरों की ओर लगातार लौट रहे हैं। किसी को श्रमिक स्पेशल ट्रेन नसीब हो जा रही है, मगर जिनको नहीं नसीब हो रही वे पैदल या साइकिल से ही चल देते हैं। अब तक करीब १.१५ लाख प्रवासी मजदूर ओडिशा अपने घर पहुंच चुके हैं जो दूसरे राज्यों में फंसे थे। भारत में मजदूरों की मजदूरी के बारे में बात की जाए तो यह भी एक बहुत बड़ी समस्या है, आज भी देश में कम मजदूरी पर मजदूरों से काम कराया जाता है। यह भी मजदूरों का एक प्रकार से शोषण है। आज भी मजदूरों से फैक्ट्रियों या प्राइवेट कंपनियों द्वारा पूरा काम लिया जाता है लेकिन उन्हें मजदूरी के नाम पर बहुत कम मजदूरी पकड़ा दी जाती है। जिससे मजदूरों को अपने परिवार का खर्चा चलाना मुश्किल हो जाता है। पैसों के अभाव से मजदूर के बच्चों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ता है। भारत में अशिक्षा का एक कारण मजदूरों को कम मजदूरी दिया जाना भी है। आज भी देश में ऐसे मजदूर हैं जो १५००-२००० मासिक मजदूरी पर काम कर रहे हैं। यह एक प्रकार से मानवता का उपहास है। बेशक इसको लेकर देश में विभिन्न राज्य सरकारों ने न्यूनतम मजदूरी के नियम लागू किये हैं, लेकिन इन नियमों का खुलेआम उल्लंघन होता है और इस दिशा में सरकारों द्वारा भी कोई विशेष ध्यान नहीं दिया जाता और न ही कोई कार्यवाही की जाती है। आज जरूरत है कि इस महंगाई के समय में सरकारों को प्राइवेट कंपनियों, फैक्ट्रियों और अन्य रोजगार देने वाले माध्यमों के लिए एक कानून बनाना चाहिए जिसमें मजदूरों की न्यूनतम मजदूरी तय की जानी चाहिए। मजदूरी इतनी होनी चाहिए कि जिससे मजदूर के परिवार को भूखा न रहना पड़े और न ही मजदूरों के बच्चों को शिक्षा से वंचित रहना पड़े। आज भी हमारे भारत देश में लाखों लोगों से बंधुआ मजदूरी कराई जाती है। जब किसी व्यक्ति को बिना मजदूरी या नाममात्र पारिश्रमिक के मजदूरी करने के लिए बाध्य किया जाता है या ऐसी मजदूरी कराई जाती है तो वह बंधुआ मजदूरी कहलाती है। अगर देश में कहीं भी बंधुआ मजदूरी कराई जाती है तो वह सीधे-सीधे बंधुआ मजदूरी प्रणाली अधिनियम १९७६ का उल्लंघन होगा। यह कानून भारत के कमजोर वर्गों के आर्थिक और वास्तविक शोषण को रोकने के लिए बनाया गया था लेकिन आज भी जनसंख्या के कमजोर वर्गों के आर्थिक और वास्तविक शोषण को नहीं रोका जा सका है। आज भी देश में कमजोर वर्गों का बंधुआ मजदूरी के जरिए शोषण किया जाता है जो कि संविधान के अनुच्छेद २३ का पूर्णतः उल्लंघन है। संविधान की इस धारा के तहत भारत के प्रत्येक नागरिक को शोषण और अन्याय के खिलाफ अधिकार दिया गया है। लेकिन आज भी देश में कुछ पैसों या नाम मात्र के गेहूं, चावल या अन्य खाने के सामान के लिए बंधुआ मजदूरी कराई जाती है। जो कि अमानवीय है। आज जरूरत है समाज और सरकार को मिलकर बंधुआ मजदूरी जैसी अमानवीयता को रोकने का सामूहिक प्रयास करना चाहिए। आज भी देश में मजदूरी में लैंगिक भेदभाव आम बात है। फैक्ट्रियों में आज भी महिलाओं को पुरुषों के बराबर वेतन नहीं दिया जाता है। बेशक महिला या पुरुष फैक्ट्रियों में समान काम कर रहे हों लेकिन बहुत सी जगह आज भी महिलाओं को समान कार्य हेतु समान वेतन नहीं दिया जाता है। फैक्ट्रियों में महिलाओं से उनकी क्षमता से अधिक कार्य कराया जाता है। आज भी देश की बहुत सारी फैक्ट्रियों में महिलाओं के लिए पृथक शौचालय की व्यवस्था नहीं है। महिलाओं से भी १०-१२ घंटे तक काम कराया जाता है। आज जरूरत है सभी उद्योगों को लैंगिक भेदभाव से बचना चाहिए और महिला श्रमिक से सम्बंधित कानूनों का कड़ाई से पालन करना चाहिए। इसके साथ ही सभी राज्य सरकारों को महिला श्रमिक से सम्बंधित कानूनों को कड़ाई से लागू करने के लिए सभी उद्योगों को निर्देशित करना चाहिए। अगर कोई इन कानूनों का उल्लंघन करे तो उसके खिलाफ कड़ी कार्यवाही करनी चाहिए। आज भारत देश में छोटे-छोटे गरीब बच्चे स्कूल छोड़कर बाल-श्रम हेतु मजबूर हैं। बाल मजदूरी बच्चों के मानसिक, शारीरिक, आत्मिक, बौद्धिक एवं सामाजिक हितों को प्रभावित करती है। जो बच्चे बाल मजदूरी करते हैं, वो मानसिक रूप से अस्वस्थ रहते हैं और बाल मजदूरी उनके शारीरिक और बौद्धिक विकास में बाधक होती है। बालश्रम की समस्या बच्चों को उनके मौलिक अधिकारों से वंचित करती है। जो कि संविधान के विरुद्ध है और मानवाधिकार का सबसे बड़ा उल्लंघन है। बाल-श्रम की समस्या भारत में ही नहीं दुनिया के कई देशों में एक विकट समस्या के रूप में विराजमान है जिसका समाधान खोजना जरूरी है। भारत में १९८६ में बालश्रम निषेध और नियमन अधिनियम पारित हुआ। इस अधिनियम के अनुसार बालश्रम तकनीकी सलाहकार समिति नियुक्त की गई। इस समिति की सिफारिश के अनुसार, खतरनाक उद्योगों में बच्चों की नियुक्ति निषिद्ध है। भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में शोषण और अन्याय के विरुद्ध अनुच्छेद २३ और २४ को रखा गया है। अनुच्छेद २३ के अनुसार खतरनाक उद्योगों में बच्चों के रोजगार पर प्रतिबंध लगाता है। संविधान के अनुच्छेद २४ के अनुसार १४ साल से कम उम्र का कोई भी बच्चा किसी फैक्टरी या खदान में काम करने के लिए नियुक्त नहीं किया जायेगा और न ही किसी अन्य खतरनाक नियोजन में नियुक्त किया जायेगा। फैक्टरी कानून १९४८ के तहत १४ वर्ष से कम उम्र के बच्चों के नियोजन को निषिद्ध करता है। १५ से १८ वर्ष तक के किशोर किसी फैक्टरी में तभी नियुक्त किये जा सकते हैं, जब उनके पास किसी अधिकृत चिकित्सक का फिटनेस प्रमाण पत्र हो। इस कानून में १४ से १८ वर्ष तक के बच्चों के लिए हर दिन साढ़े चार घंटे की कार्यावधि तय की गयी है और रात में उनके काम करने पर प्रतिबंध लगाया गया है। देश के उत्पादन में वृद्धि और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जो उच्च मानक हासिल किये गये हैं वह हमारे श्रमिकों के अथक प्रयासों का ही नतीजा है। इसलिए राष्ट्र की प्रगति में अपने श्रमिकों की महत्वपूर्ण भूमिका को पहचान कर सभी देशवासियों को उसकी सराहना करनी चाहिए। इसके साथ ही मजदूर दिवस के अवसर पर देश के विकास और निर्माण में बहुमूल्य भूमिका निभाने वाले लाखों मजदूरों के कठिन परिश्रम, दृढ़ निश्चय और निष्ठा का सम्मान करना चाहिए और मजदूरों के हितों की रक्षा के लिए सम्पूर्ण राष्ट्र और समाज को सदैव तत्पर रहना चाहिए।
लियाकत शाह एम.ए बी.एड
महाराष्ट्र राज्य कार्यकारी समिति सदस्य,
अखिल भारत जर्नालीस्ट फेडरेशन