अंतर्राष्ट्रीय पितृ दिवस पर विशेष :-
आत्मिक संतोष
पितृ दिवस के मौक़े पर रोहित ने अपने वृद्ध पिता रमेशचंद्र को एक कलाई घड़ी तोहफे में दी….और घड़ी देते समय रोहित ने अपने पिता रमेशचंद्र की ओर दंभात्मक निगाहों से ऐसे देखा….जैसे उन पर कोई बड़ा सा एहसान कर रहा हो।
वृद्ध पिता रमेशचंद्र ने सूनी निगाहों से रोहित की अहंकार से अकड़ी हुई गर्दन को देखा….और कातर स्वर में उससे कहा कि “बेटा इस घड़ी को तुम अपने पास ही रख लो….मुझे तो तुम अपने क़ीमती समय में से बस कुछ, “समय” दे दिया करो….क्योंकि मुझे समय देखने के लिए घड़ी की नहीं बल्कि तुम्हें देखने के लिए तुम्हारे “समय” की ज़रुरत है….वही मेरे लिए तुम्हारा दिया हुआ सबसे क़ीमती तोहफ़ा होगा”।
मजबूर वृद्ध पिता रमेशचंद्र की यह याचना सुनते ही रोहित की दंभ से भरी गर्दन झुकती चली गई….उसकी टांगे कांपने लगीं, वह पिता के इस आर्तनाद के बोझ से दबता हुआ धीरे धीरे घुटनों के बल नीचे बैठ गया….और उसके हाथ स्वतः ही पिता के चरणों तक पहुंच गए।
दोनों की आंखों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी….रोहित की आंखों से निकली पश्चाताप की अश्रुधारा पिता के पैरों पर गिरकर उससे हुई भूल की माफ़ी मांग रही थी….वहीं पुत्र के हृदय परिवर्तन पर रमेशचंद्र की आंखों से बहती हुई “आत्मिक संतोष” की अश्रुधारा नीचे बैठे रोहित के सिर पर गिर कर उसे आशीर्वाद दे रही थीं…. रमेशचंद्र ने क़दमों में बैठे हुए रोहित को कांपते हाथों से जैसे ही ऊपर उठाया….रोहित अपने बूढ़े बाप के कमज़ोर से वजूद से एक छोटे बच्चे की तरह लिपट गया….वहीं रमेशचंद्र ने मारे ख़ुशी के रोहित को अपनी बाजुओं के घेरे में लेकर उसे अपने अंक में भींच लिया….उधर दरवाज़े पर लकड़ी की लाठी के सहारे झुकी हुई सी खड़ी रोहित की बूढ़ी मां कमला, पिता-पुत्र के इस स्नेह को देखकर अपनी डबडबाई आंखों से बहने वाले आंसुओं को ना रोक सकी….और आंसुओं के सैलाब ने नाउम्मीदी के सारे बांध तोड़ डाले…. रोहित ने आगे बढ़कर मां को अपनी आगोश में ले लिया और रूंधे गले से अपने व्यवहार के लिए क्षमायाचना करने लगा…. लेकिन मां तो मां ठहरी….संतान को रोते हुए कहां देखती है….मुहब्बत से रोहित के सिर पर अपने झुर्री भरे हाथ फेर कर उसकी बलायें लेने लगी….और अपना सबसे मज़बूत सहारा मिलते ही लकड़ी की लाठी उसके हाथ से छूट गई….
*अपील* – साथियों, बूढ़े हो चुके हमारे माता-पिता को घड़ी या हमारी दौलत की नहीं बल्कि हमारे समय की ज़रूरत है….इसलिए हर दिन उनके पास बैठ कर उनसे बातें करो….उनको वक़्त दो, जिससे वो अपने दिल की बात हमसे साझा कर सकें….उसके बाद देखना आपकी चाहत और आपकी मुहब्बत की गर्मजोशी से उनके चेहरे पर छाईं अवसाद की लकीरें कैसे ग़ायब होती हैं….और उनके भीतर जीने का जज़्बा जगाती हैं….याद रखना साथियों….बुज़ुर्ग हैं तो हम हैं…और उनके जाने के बाद…फिर पछतावे के सिवा कुछ नहीं रहता…..
मेरे मरहूम वालिदैन के लिए मेरा इज़हार कुछ यूं है…
“माना कि लाखों अल्फ़ाज़ मेरी लुग़त में हैं,
मगर अज़मतों को आपकी बयां कर सकूं,
ऐसा एक भी लफ़्ज़ उस लुग़त में नहीं।”
(मरहूम-स्वर्गीय, वालिदैन-मां-बाप, लुग़त-शब्दकोष, अज़मत-महानता))
लेखक – अनवर ख़ान