भोपाल – भारतीय तिरंगे के चलायमान चक्र से समय का वह दौर चल रहा हैं जब लोकतन्त्र का स्तम्भ कहलाने वाली संवैधानिक संस्था न्यायपालिका का चेहरा उच्चतम न्यायालय कह रहा हैं कि चंडीगढ़ मेयर चुनाव में लोकतन्त्र की हत्या हुई | संविधान पीठ कह रही हैं कि इलेक्ट्राल वोट असंवैधानिक हैं। संविधान के जानकार व विशेषज्ञ कह रहे हैं कि संवैधानिक संस्थाओं का जो आपसी ढांचा बनाकर चेक व बैलेंस की जो संविधान निर्माताओं ने जो प्रक्रिया बनाई वो खत्म होने के कगार पर हैं या खत्म हो चुकी हैं ।
सार्वजनिक रूप से शिक्षित, बुद्धिजीवी व लोकतन्त्र में किसी न किसी पद पर कार्य करके स्वयं सच्चाई को परख चुके माननीय कह रहे हैं कि जब संवैधानिक संस्थाओं के प्रमुखों का चयन जब प्रधानमंत्री व कार्यपालिका के लोग ही करेंगे तो व उनके गलत फैसलों को रोकना तो दूर उस पर अंगुली भी कैसे उठायेंगे | सीबीआई प्रमुख के चयन में यह सौलह आना सच उजागर हो गया | चुनाव आयोग के प्रमुख के चयन में सबकुछ धरातल पर सामने आ गया | चयन प्रक्रिया में भारत के मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर नये कानूनी रूप से सत्ताधारी दल या समूह के लोगों को ही चयनकर्ता कमेटी में बहुमत के रूप में रखने के प्रावधान से सबको बेईमानी की बदबू आने लग गई | अब लोकसभा चुनाव से पूर्व दो चुनाव आयुक्तों के चयन को लेकर मामला फिर उच्चतम न्यायालय, कार्यपालिका व विधायिका के मध्य ले देकर समय व जनता के मुंह के निवाले पर वसूले टैक्स के पैसे पानी में बहाकर वही आ गया, जहां से वो चला था |
इलेक्ट्रोल बॉन्ड के मामले में फिर वही सच्चाई धरातल पर निकलकर सामने आई कि भारत के सबसे बडे़ सरकारी भारतीय स्टेट बैंक के प्रमुख व निर्देशकों के चयन में कार्यपालिका, उसके प्रमुख प्रधानमंत्री व सत्ताधारी राजनैतिक दल ही प्रभावी हैं। उच्चतम न्यायालय व जहां तक की संविधान पीठ के आदेशों को नकार देंगे या टालमटोल कर ठंडे बस्ते में डालने की कोशिश करेंगे तो मलाई के रूप में सेवा विस्तार व कोई न कोई पद मिलेगा | यदि नहीं करेंगे तो हाथ से जीवका, चलने वाली नौकरी हाथ से जायेगी नहीं तो हालात ऐसे पैदा कर दिये जायेंगे कि समय से पहले रिटायरमेंट लेकर पारिवारिक मजबूरी के नाम पर घर बैठना पड़ेगा |
इसके विपरित न्यायपालिका की वो संवैधानिक पीठ जिसके सभी न्यायाधीश मीलकर एक फैसला देदे तो उसे संविधान संरक्षक राष्ट्रपति भी नहीं बदल सकते हैं व निरस्त कर सकते हैं क्योंकि उसे भी संविधान-संरक्षक का दर्जा संविधान ने दे रखा हैं । इसके फैसले को न मानने व टालने से होगा क्या सिर्फ़ फटकार ही लगेगी, कौनसी सजा मिलेगी और फटकार भी सुननी किसको हैं वो तो वकील सुनेगा |
इस डेढ होशियारी में कार्यपालिका या तथाकथित सरकार अपने लिए समय निकाल पतली गली से निकल लेती हैं फिर रात गई और बात गई वाला खेल चलता रहता हैं | यदि किसी बड़े सरकारी कर्मचारी को भी बली का बकरा बनाना पडे तो क्या फर्क पड़ता हैं, इनकी कमी थोडी हैं । इसके लिए पुरी जमात लाईन में खडी है किसे अपना परिवार और बच्चे प्यारे नहीं लगते |
इस सारी समस्या की मूल जड़ एक छुपाया गया या झूठ बनाकर देशवासीयों के दिल व दिमाग में घुसाया गया सच हैं जिसे आपका साइंटिफिक-एनालिसिस शुरू से बताता आ रहा हैं । न्यायपालिका को अंग्रेजी में ज्यूडिशरी कहते हैं। संसद यानि विधायिका को लेजिस्लेटिव कहते हैं और कार्यपालिका जिसके प्रमुख प्रधानमंत्री होते हैं उसे अंग्रेजी में एक्जिक्यूटिव कहते हैं परन्तु उसे गवर्मेंट यानि सरकार रटाकर, समझाकार व इस्तेमाल करके पूरे संविधान का गुड़-गोबर करके रखा हैं । भारत सरकार मतलब कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका व पत्रकारिता (जिसको चेहरा नहीं दे रखा हैं) को सामुहिक रूप से कहते हैं, जिसके प्रमुख राष्ट्रपति होते हैं न कि प्रधानमंत्री |
कार्यपालिका यानि अंग्रेजी में गवर्मेंट यह झूठ हजारों-लाखों बार बोलकर, छापकर, दिखाकर दिल व दिमाग में 200 वर्षों वाली गुलामी की अंग्रेजों वाली खिडकी से इस तरह घुसाया गया हैं कि संविधान की व्याख्या कर समझाने वाले उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश भी धोखा खा जाते हैं | इसका ज्वलंत उदाहरण रफाल विमान सौदा हैं जो फ्रांस सरकार (राष्ट्रपति प्रमुख होते हैं) व भारत की कार्यपालिका (प्रधानमंत्री प्रमुख होते हैं) के मध्य हुआ उसे सरकार से सरकार का समझौता कहकर बन्द लिफाफा इधर से उधर घुमाकर व रफाल पर तिलक व टायर के निचे निम्बु रखकर पुरा कर दिया |
शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक