भोपाल – भारत ही नहीं पुरी दुनिया में लोकतन्त्र बर्बाद हो रहा हैं | इसको बचाने व मजबूत करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर कई देशों के प्रमुखों ने प्रतिवर्ष मीटिंग करना भी शुरु कर दिया हैं। आज हम सिर्फ़ भारत के लोकतन्त्र की बात करेंगे जो दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र हैं । इसकी आत्मा को संविधान कहां जाता हैं यानि क्रियान्वयन या व्यवस्था इसमें निर्धारित करे गये नियम-कायदों से चलती हैं ।
लोकतन्त्र के बर्बाद होने का मूल कारण इसके शीर्ष संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों की नासमझी या राजनैतिक साजिश हैं। भारत में सबसे बड़ा संवैधानिक पद राष्ट्रपति का हैं और अन्य पद मुख्य न्यायाधीश, प्रधानमंत्री, राज्यसभा के अध्यक्ष व लोकसभा के स्पीकर इत्यादि-इत्यादि का हैं । इन लोगों ने संविधान में लिखी बातों व उससे निकलने वाले अर्थों को समझा नहीं या गलत अर्थ बताकर जनता को बेवकूफ बना अपनी कुर्सी बचाकर उन पर शासन करा जा रहा हैं।
आप इसे राष्ट्रपति के संवैधानिक पद से ही समझे, जिन्होंने अभी संसद में अपना अभिभाषण देकर अट्ठारहवीं लोकसभा व नये सत्र की विधिवत शुरूआत करी हैं । इस अभिभाषण में उन्होंनेे “मेरी सरकार” का कई बार प्रयोग किया हैं। संविधान के अनुसार देश में आम लोगों की सरकार बनती हैं और उसके प्रमुख राष्ट्रपति होते हैँ | इसलिए कई जगहों पर उनके सम्बोधन में मेरी सरकार कहना पूर्णतया उचित हैं परन्तु बहुत सी जगह उन्होंने गलत प्रयोग करा | इसी गलत व मिथ्या इस्तेमाल से लोकतन्त्र के बर्बाद होने की शुरुआत होती हैं जो निचे के प्रशासनिक स्तरों पर पहुंचते-पहुंचते बहुत बड़ा विकराल रूप लेकर गलत अवधारणा के रूप में पुरी व्यवस्था को ग्रसित कर उसका बिखराव करने लगती हैं। संविधान के नियम-कायदे का सही रूप से पालन नहीं हो पाता वो हवा-हवाई होने लगते हैं ।
संविधान के अर्थ व भावना के अनुरूप लोकतन्त्र के चारों स्तम्भों के माननीय सदस्य उसके प्रमुख व राष्ट्रपति के सीधे अन्तर्गत काम करने वाली कई स्वतंत्र संवैधानिक संस्थाएं मिलकर भारत-सरकार बनती हैं | इसलिए भारतीय उच्चतम न्यायालय, संसद-भवन, प्रधानमंत्री कार्यालय, भारतीय रिजर्वं बैंक, चुनाव आयोग आदि के नाम के आगे भारत-सरकार लिखा जाता हैं। आप इन में से किसी का भी भवन या कार्यालय देख ले व इनसे जारी होने वाले आदेशों के कागज देख ले स्पष्ट रूप से सच झलकता हुआ नजर आयेगा |
राष्ट्रपति ने अधिकांश जगह कार्यपालिका को ही भारत-सरकार होने का संदेश दिया व अन्य सभी संस्थाओं के नाम के आगे या निचे लिखे भारत-सरकार पर प्रश्न चिन्ह् लगा दिया | राष्ट्रपति ने कहां कि मेरी सरकार के कामों का समर्थन करते हुए लोगों ने उन्हें चुनाव में वापस चुनकर भेजा | यहां पर तो सिर्फ़ लोकसभा के सदस्यों का चयन हुआ उसमें भी कई पुराने केन्द्रीय मंत्रिमंडल के सदस्य चुनाव हार गये और कुछ ने तो चुनाव में हिस्सा ही नहीं लिया | वर्तमान में उन्होंने प्रधानमंत्री व उनके मंत्रिमंडल के सदस्यों को शपथ दिलाकर सिर्फ कार्यपालिका का ही गठन किया हैं जिसे अंग्रेजी में एक्जीक्यूटिव कहते हैं न कि गवर्नमेंट कहते हैं ।
राष्ट्रपति का कहना मेरी पिछली दस वर्षों की सरकार व उसके कामों का जनता ने चुनाव में समर्थन करा यह अपने आप में लोकतन्त्र और संविधान का सबसे बडा मजाक बनाना हुआ | यदि राष्ट्रपति पद के रूप में सैद्धांतिक और विज्ञान के तर्क के आधार पर देखे तो सरकार 26 जनवरी, 1950 से संविधान लागू होने से चल रही हैं व व्यक्तिगत रूप से देखे तो उनके राष्ट्रपति बने हुए जितने वर्ष हुये उतने समय से चल रही हैं जो पांच वर्ष भी पूरे नहीं हुये | चुनाव के माध्यम से व संवैधानिक पद की शपथ के रूप में चयन व पदभार तो सिर्फ पांच वर्षों का होता हैं।
राष्ट्रपति का कहना कि आपातकाल भारतीय लोकतन्त्र पर सबसे बड़ा दाग हैं यह अपने आप में राष्ट्रपति पद की मर्यादाओं के कपडे फाडने जैसा हैं । देश के हर संविधान के जानकार, पढें-लिखे व बुद्धिजीवी को पता हैं कि राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के बाद ही आपातकाल का आदेश देश में लागू हुआ था | यह सब संविधान के नियमों के आधार पर लगा इसलिए इसे लोकतन्त्र पर दाग नहीं कह सकते | यदि काला दाग, जनता के साथ धोखा व उसकी आजादी छिनने का कोई जवाबदेही व अपराधी हैं तो उस समय की कार्यपालिका व उसके प्रमुख प्रधानमंत्री हुये | इसके लिए पूरी भारत-सरकार को दोषी बताना अपने सिर पर अपना ही जूता मारने का मुहावरा चरितार्थ करना होता हैं । पहले कार्यपालिका और भारत-सरकार के अन्तर को समझना व आत्मसाध करना होगा अन्यथा लोकतन्त्र व संविधान बचाने व मजबूत करने की बात करने का ढोल पीटना सिर्फ़ लोकशाही समर्थक जनता की पीढ में छूरा घोंपना व घडियाली आंसू बहाना हैं ।
शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक